किसी की ख़ातिर अल्ला होगा,
किसी की ख़ातिर राम
लेकिन अपनी ख़ातिर तो है,
माँ ही चारों धा
जब आँख खुली तो अम्मा की गोदी का एक
सहारा था
उसका नन्हा -सा आँचल मुझको भूमण्डल से
प्यारा था
उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों-
सा खिलता था
उसके स्तन की एक बूंद से मुझको जीवन
मिलता था
हाथों से बालों को नोचा , पैरों से खूब
प्रहार किया
फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर
के प्यार किया
मैं उसका राजा बेटा था वो आँख
का तारा कहती थी
मैं बनूँ बुढ़ापे में उसका बस एक
सहारा कहती थी
उंगली को पकड़ चलाया था पढ़ने विद्यालय
भेजा था
मेरी नादानी को भी निज अन्तर में
सदा सहेजा था
मेरे सारे प्रश्नों का वो फौरन जवाब
बन जाती थी
मेरी राहों के काँटे चुन वो ख़ुद
ग़ुलाब बन जाती थी
मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से इक रोग प्यार
का ले आया
जिस दिल में माँ की मूरत
थी वो रामकली को दे आया
शादी की , पति से बाप बना, अपने
रिश्तों में झूल गया
अब करवाचौथ मनाता हूँ
माँ की ममता को भूल गया
हम भूल गए उसकी ममता , मेरे जीवन
की थाती थी
हम भूल गए अपना जीवन, वो अमृत
वाली छाती थी
हम भूल गए वो ख़ुद भूखी रह करके हमें
खिलाती थी
हमको सूखा बिस्तर देकर ख़ुद गीले में
सो जाती थी
हम भूल गए उसने
ही होठों को भाषा सिखलाई थी
मेरी नींदों के लिए रात भर उसने
लोरी गाई थी
हम भूल गए हर ग़लती पर उसने डाँटा-
समझाया था
बच जाऊँ बुरी नज़र से
काला टीका सदा लगाया था
हम बड़े हुए तो ममता वाले सारे बन्धन
तोड़ आए
बंगले में कुत्ते पाल लिए
माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए
उसके सपनों का महल गिरा कर कंकर-कंकर
बीन लिए
ख़ुदग़र्ज़ी में उसके सुहाग के आभूषण
तक छीन लिए
हम माँ को घर के बँटवारे
की अभिलाषा तक ले आए
उसको पावन मंदिर से गाली की भाषा तक
ले आए
माँ की ममता को देख मौत भी आगे से हट
जाती है
गर माँ अपमानित होती , धरती की छाती फट
जाती है
घर को पूरा जीवन देकर
बेचारी माँ क्या पाती है
रूखा -सूखा खा लेती है, पानी पीकर
सो जाती है
जो माँ जैसी देवी घर के मंदिर में
नहीं रख सकते हैं
वो लाखों पुण्य भले कर लें इंसान
नहीं बन सकते हैं
माँ जिसको भी जल दे दे वो पौधा संदल
बन जाता है
माँ के चरणों को छूकर पानी गंगाजल बन
जाता है
माँ के आँचल ने युगों -युगों से
भगवानों को पाला है
माँ के चरणों में जन्नत है गिरिजाघर
और शिवाला है
हिमगिरि जैसी ऊँचाई है , सागर
जैसी गहराई है
दुनिया में जितनी ख़ुशबू है माँ के
आँचल से आई है
माँ कबिरा की साखी जैसी ,
माँ तुलसी की चौपाई है
मीराबाई की पदावली ख़ुसरो की अमर
रुबाई है
माँ आंगन की तुलसी जैसी पावन बरगद
की छाया है
माँ वेद ऋचाओं की गरिमा ,
माँ महाकाव्य की काया है
माँ मानसरोवर ममता का , माँ गोमुख
की ऊँचाई है
माँ परिवारों का संगम है,
माँ रिश्तों की गहराई है
माँ हरी दूब है धरती की , माँ केसर
वाली क्यारी है
माँ की उपमा केवल माँ है, माँ हर घर
की फुलवारी है
सातों सुर नर्तन करते जब कोई
माँ लोरी गाती है
माँ जिस रोटी को छू लेती है वो प्रसाद
बन जाती है
माँ हँसती है तो धरती का ज़र्रा -
ज़र्रा मुस्काता है
देखो तो दूर क्षितिज अंबर
धरती को शीश झुकाता है
माना मेरे घर की दीवारों में चन्दा-
सी मूरत है
पर मेरे मन के मंदिर में बस केवल
माँ की मूरत है
माँ सरस्वती , लक्ष्मी, दुर्गा,
अनुसूया, मरियम, सीता है
माँ पावनता में रामचरितमानस् है
भगवद्गीता है
अम्मा तेरी हर बात मुझे वरदान से
बढ़कर लगती है
हे माँ तेरी सूरत मुझको भगवान से
बढ़कर लगती है
सारे तीरथ के पुण्य जहाँ, मैं उन
चरणों में लेटा हूँ
जिनके कोई सन्तान नहीं, मैं उन माँओं
का बेटा हूँ
हर घर में माँ की पूजा हो ऐसा संकल्प
उठाता हूँ
मैं दुनिया की हर माँ के चरणों में ये
शीश झुकाता हूँ
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